ऑफिसों में बढ़ रहा है तनाव, क्या बीमार हो रहा है कॉरपोरेट इंडिया?

ऑफिसों में बढ़ रहा है तनाव, क्या बीमार हो रहा है कॉरपोरेट इंडिया?

नरजिस हुसैन

आशुतोष ऑफिस में हर वक्त थका-थका रहता था। जब उसके सहयोगी साथ चलकर खाना खाने को कहते या चाय पीने जाने को कहते तो वह मना कर देता था। हालांकि, ऑफिस के बाकी लोगों पर भी काम का दबाव रहता था लेकिन, आशुतोष का कहना था कि उसे हर वक्त न्यूज मॉनिटर करनी होती है इस बीच अगर कुछ भी मिस हुआ तो उसको फौरन बॉस बुला लेगा। ये बात तो एक चैनल के न्यूज रूम की है लेकिन, कॉरपोरेट सेक्टर सहित कमोबेश ये हालात आज हर ऑफिस में आसानी से देखे जा सकते हैं। अब से कुछ वक्त पहले तक तो कुछ चुने हुए सेक्टरों में काम करने वालों का यह हाल था लेकिन, आज सभी इस वर्क प्रेशर में दफ्तरों में काम कर रहे हैं।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 की एक रिपोर्ट (https://apps.who.int/iris/bitstream/handle/10665/254610/WHO-MSD-MER-2017.2-eng.pdf;jsessionid=8DFA3B7B3E2CFBC79602FD1DA4A534D7?sequence=1) में साफतौर से कहा कि भारत में 5.6 करोड़ लोग डिप्रेशन यानी अवसाद में जी रहे हैं और 3.8 करोड़ लोग एंजाइटी से घिरे हुए हैं। इसके बावजूद भी भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भय और डर है और इसके बारे में लोग खुलकर बात करने से कतराते हैं। पारिवारिक तनाव के बाद ऑफिस या कार्यस्थल दूसरी सबसे बड़ी वजह है किसी भी इंसान के मानसिक संतुलन को गड़बड़ाने का। काम करने की जगह पर पैदा हुआ तनाव या मानसिक विकारों को जन्म देता है या उन्हें और बड़ा रूप देता है। देश में इतने विकास के बावजूद आज भी ऐसे ऑफिस और दफ्तर आसानी से देखे जा सकते हैं जहां अपने स्टाफ के मानसिक स्वास्थ्य के लिए मालिक कोई इंतजाम नहीं करता है। स्टाफ जिस मानसिक और शारीरिक हाल में हैं रहे उससे मालिक को कोई फर्क नहीं पड़ता।

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2018 में एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें बताया गया था कि बंगलुरू में हर एक लाख लोगों में 35 लोग डिप्रेशन की वजह से खुदकुशी करते हैं। वहीं एसोचैम के एक अध्ययन से यह पता चला कि 2017 में सरकारी सेक्टर की तुलना में 42.5 प्रतिशत लोग जो भारत के प्राइवेट सेक्टर में काम करते हैं वे डिप्रशन, एंजाइटी और इसी तरह के अन्य मनोविकारों से ग्रस्त थे। यानी हर दूसरा स्टाफ मानसिक रोग का शिकार है। इसकी बड़ी वजह लंबा वर्किंग आवर और कम वेतन था जो शुरू में तो कर्मचारी को थकान देता है फिर आगे चलकर यही थकान तनाव और कुंठा को जन्म देते हैं जिसका नतीजा होता है गंभीर मानसिक रोग। भारत आज पूरी दुनिया में सस्ती मजदूरी का बड़ा केन्द्र बना गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि ऑफिसों और दफ्तरों में तेजी से बढ़ रहे मनोविकारों की वजह से भारत को 2012-2030 के दौरान 1.03 खरब डॉलर की आर्थिक मार झेलनी पड़ी और आगे भी पड़ सकती है।

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अमेरिका की जाने-माने अखबार वॉल स्टट्रीट जनरल में 2016 में एक भारतीय दुनिया के 25 अन्य देशों के स्टाफ की तुलना में कहीं ज्यादा वक्त दफ्तर में काम करता है। एक हफ्ते में करीब 52 घंटे ज्यादा समय वह कार्यस्थल को देता है। इस सबके बीच नौकरी की असुरक्षा के अलावा कई और दबाव लगातार स्टाफ पर बने रहते हैं जो मानसिक तनाव ही नहीं बल्कि आघात (ट्रामा) की तरफ लोगों को ले जाते हैं। यही हालत औरतों की भी है। आज 38 प्रतिशत कामकाजी औरतें किसी-न-किसी तरह के मनोविकारों से पीड़ित हैं जबकि मनोविकारों से ग्रस्त घर में रहने वाली औरतों की तादाद 26 फीसद है। यानी औरतों की कुल आबादी का 36 प्रतिशत हिस्सा ही मानसिक रूप से अब तक ठीक है। इनमें से ज्यादातर स्टाफ को छह घंटे भी सोने को नहीं मिलता। एसोचैम के एक अध्ययन में भी यह बताया गया है कि भारत में प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले कुल 50 फीसद लोगों में पिछले आठ सालों में डिप्रेशन बढ़ा है। प्राइवेट सेक्टर के 23 प्रतिशत स्टाफ को मोटापे की शिकायत है जो उन्हें पहले तो डायबिटीज और धीरे-धीरे हाइपरटेंशन और हार्ट अटैक की तरफ धकेलता है।

इसके अलावा हर वक्त काम पर यानी 24/7 घंटे काम करने की मालिक की उम्मीद ने स्टाफ को और मानसिक रोगों की तरफ ढकेला है। हावर्ड बिजनेस स्कूल ने अपने एक शोध (https://hbswk.hbs.edu/item/women-pay-a-higher-career-price-in-today-s-always-on-work-culture) में यह पाया कि ऑलवेज ऑन वाले कल्चर में ज्यादातर महिला को ही खामियाजा भुगतना पड़ता है। भारत में 46 प्रतिशत स्टाफ को ही मालिक की तरफ से तनाव से निपटने में मदद मिलती है लेकिन ज्यादातर स्टाफ यही तालमेल बिठाने में पूरी जिंदगी गुजार देते है। अर्नस्ट एंड यंग और हिंदुस्तान युनिलीवर के अलावा कुछेक कंपनियां ही ऐसी हैं जिन्होने अपने स्टाफ के तनाव और मनोरोगों के प्रबंधन के लिए पॉलिसिज बनाई हैं लेकिन, ज्यादातर कंपनियों को आज भी सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब है। भारत, नाइजीरिया, सउदी अरब और इंडोनेशिया में कंपनियों ने इस तरह की पॉलिसीज की जो शुरूआत की थी उसमें अब भारी सुधार दर्ज किया गया है।

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मानसिक तनावों से निपटने का एक कारगर तरीका कुछ कॉरपोरेट हाउसेज ने यह ढूंढा है कि स्टाफ को घर से ही काम करने का विकल्प दिया है। यह सफल भी हुआ औऱ इससे कम-से-कम ऑफिस पॉलिटिक्स और अन्य बेवजह के दबावों से स्टाफ आजाद भी हुआ। इसके और रीके यह भी हो सकते हैं मसलन, मालिक को चाहिए कि स्टाफ पर नजर रखे कि किसे कहां और क्यों परेशानी है वहां जल्द ही हल तलाशे, हर स्टाफ के साथ बर्ताव अलग हो यानी स्टाफ की उम्मीद के हिसाब से ही उनके साथ पेश आया जाए, अगर कंपनी में ऐसे सीनियर लोग मौजूद हों जिनसे स्टाफ खुलकर और भरोसे के तहत परेशानी बता सके तो बहुत बेहतर है, कंपनी में सीखने और स्टाफ को आगे बढ़ाने की नीयत होनी चाहिए, स्टाफ को वक्त-वक्त पर मानसिक तौर पर फ्री रहने के लिए छुट्टियां देने की इंतजाम होना जरूरी है इससे स्टाफ खुश भी रहता है और मालिक को फायदा भी होता है। हां, अगर कंपनी या ऑफिस में एक कांउसिलर हो तो मालिक की आधी मुसीबत मानों खत्म। ये काउंसिलर ही मौके-बेमौके स्टाफ को हील करता रहेगा।

लेकिन अब यह काम सफल हो कैसे तो सरकार की इसमें खास भूमिका होती है अगर वह ईमानदार कोशिश जारी रखे तो। पहले तो सरकार यह सुनिश्चित करे कि पूरा प्राइवेट सेक्टर ऑफिस या कर्यस्थल पर स्टाफके मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाए रखने के लिए नीतियां बनाए और उनपर अमल भी करे। यह भी निश्टित करे कि महिलाओं और विक्लांगों के हितों की कहीं अनदेखी न हो या उनके साथ पक्षपात न हो। सरकार को चाहिए कि जिन सेक्टरों में शारीरिक और मानसिक तनाव के ज्यादा मामले हो सकते हैं जैसे- खनन, फैक्ट्रीज या हेल्थ सेक्टर वहां अलग तरह से दखल दे तभी आने वाले वक्त में कार्यस्थल पर तनाव एक भूली बिसरी बात बन पाएगा।

 

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